हाल ही में भारतीय राजनयिक और रूस में राजदूत रहे पंकज सरन अमेरिका दौरे पर थे. एक थिंक टैंक द्वारा आमंत्रण पर उन्होंने भारत रूस संबंधों पर विस्तृत रूप में बात की और फिर सवाल जवाब का दौर शुरू हुआ.
इसमें एक सवाल विशेष रूप में ध्यानाकर्षण योग्य था. इसमें पंकज सरन से पूछा गया की भारत और अमेरिका, दोनों की साझा प्राथमिकता यही है की रूस चीन पर निर्भर ना होने पाए. लेकिन, सवाल आगे जाता है, जहाँ अमेरिका यूक्रेन को मजबूत करना चाहता है जब तक रूस अपनी आक्रामकता से पीछे ना हटे, वहीं भारत रूस को ही मजबूत रखना चाहता है और ये विरोधाभासी है. पूछा ये गया की रूस पर नीति क्या हो इसको लेकर भारत अमेरिका में भारी मतभेद हैं और इसको सुलझाने की जरुरत है.
इस पर पंकज सरन ने राजनयिक होते हुए भी इतना जरूर कहना पड़ा की क्या हम रूस के एक और बार विघटन के लिए तैयार हों. सरन ने आगे कहा की कोई है जो ये देखकर खुश ही होगा की भारत और अमेरिका रूस के मुद्दे पर उलझे हुए हैं (इशारा चीन की ओर था).
अब पंकज सरन जैसे एक सधे हुए राजनयिक को यहाँ तक कहना पड़ा की क्या हम एक बार और रूस के विघटन के लिए तैयार हों. लेकिन सवाल परेशान करने वाला इसलिए है क्योंकि आज के दौर में मुख्यतः भारत और रूस ही हैं जो एक बहुध्रुवीय दुनिया के लिए प्रयासरत हैं. बाकी अमेरिका और चीन या तो अपनी सत्ता चाहते हैं या आपस में दुनिया को बांटने का सपना देखते से लगते हैं.
अब अगर अमेरिका का कोई रणनीतिक जानकार रूस को एक और विघटन की ओर धकेलना चाहता है तो निश्चित ही भारत समेत पूरी दुनिया के लिए चिंता का विषय होना चाहिए।
तो अमेरिका क्या ये चाहता है की दुनिया उसके और चीन के बीच चुनाव करे और इस तरह नाटो का फिर से एक वृहद् पैमाने का विस्तार हो जाये. इस बार अमेरिका के हथियार दुनिया भर के कई देशों में और प्रसारित हो जाएंगे। कुछ मुट्ठी भर देश जैसे ईरान या बेलारूस, उत्तरी कोरिया जरूर चीन के खेमे में शामिल होने को मजबूर होंगे. पर रूसी टेक्नोलॉजी जो दशकों से परिपक्व होती रही है उस पर किसका नियंत्रण होगा.
ये भी अभी हाल में ही खुलासा हुआ है की अमेरिका ने गुपचुप तरीके से लम्बी दूरी की ढेरों मिसाइल यूक्रेन भेजी है. जिसका मतलब भी यही है की अमेरिका यूक्रेन के माध्यम से रूस को अधिकतम नुकसान पंहुचा सके. अमेरिका डॉलर के खिलाफ चलने वाली मुहीम से परेशान है और यदि रूस का विघटन कर पाया तो निश्चित ही उसके लिए राहत की बात होगी क्योंकि तब डॉलर का विकल्प खोजने का अभियान धीमा पड़ जायेगा।
इसी तरह चीन भी अपनी राष्ट्रीय मुद्रा को आगे बढ़ाना चाहता है और भारत और रूस के रहते वो ब्रिक्स और SCO समूहों में हावी नहीं हो पा रहा है. लेकिन यदि रूस कमजोर हो और टूट भी जाए और भारत अमेरिकी खेमे में चला जाए तो चीन के लिए पाकिस्तान, ईरान के इतर मध्य एशिया, तुर्की तक भी वर्चस्व कायम करना आसान होगा.
इस तरह अब यही साबित होता है की भारत और रूस को आपसी सहयोग और व्यापार को बढ़ाना होगा और इस क्षेत्र में अपने बलबूते भी अपना प्रभाव कायम करना ही होगा।